आज वो बहुत रूठी है हमसे
वो, नज़र भर देखा करती थी जो
पीठ पर थपकियाँ देती थी जो
रोज़ चंद घड़ियों में ख़ुशी ढूंड लाती थी जो
आज कुछ नाराज़ सी है हमसे
अब जब बैठे ही हैं मनाने उसे
मोतियों की तरह पिरोते थे जिसे
शब्द नही सूझ रहे सजाने को
नयी स्याही होगीे वादे किये कुछ ऐसे
पिछले रंग की निशान मिटा भी नही पाए
खाली पन्नो को अब ताकते हुए
कलम जो यह रूठी, तो अब मनाये कैसे...
-- श्वेतिमा
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