Saturday, August 22, 2015

कुछ ख्याल


बहोत मुश्किलों से एक तितली हाथों पर बिठाई थी
बादलों ने जब पंख लगाये, तो उसे भी साथ उड़ा ले गई

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उँगलियों के सिरों से बुनी थी ये मखमली सपनों की चादर
दोपहर की तपिश से बचने के काम भी न आ सकी
     
                                                            - श्वेतिमा 

Wednesday, August 12, 2015

धूल

आज भी जब उन गलियों से गुज़रते हैं
वक़्त की किताब से पुराने पन्ने पलटते हैं
जहाँ कभी रोशन चांदनी थी
सपनों की रवानी थी
लम्हों में जवानी थी
और जैसे काबू जिंदगानी थी

उन हरे पत्तों से टपकती बूदों के हीरे
और मिट्टी की खुशबू में महकती तस्वीरें
जब झाड़ी वो चादर
बिखर कर गिर गए वो हज़ार तारे
जिन्हें पलकों से तोड़ा था
रखकर सर तुम्हारे कांधे के सहारे

बदल गए है लोग, बदला सा कुछ वक़्त भी है
पर जाकर जब छुए तुम्हारे क़दमों के निशान,
ये लम्हा वहीँ ठहर सा गया है

भूले गर होते तो अजनबी होते इस शहर में
पर खिली हैं कुछ बंद कलियाँ
कुछ रात की रेत धुली सी है
अहसास कुछ घुला सा है हवाओं में
और सुकून समाया है शामों सेहर में

                                           - श्वेतिमा

Tuesday, August 11, 2015

वो जज़्बात

वो नदी जो बहती थी, किनारे कुछ टूटे से हैं अब उसके
ठंडी हवा जो चलती थी वहां, अब कुछ उमस सी रहती है

कुछ तो सूख गया है, या कुछ रूठ गया है
जो बच्चा था हँसता खिलखिलाता सा, वो सपने बुनना भूल गया है

सुनहरे पंख लिए, बादलों से उपर उड़ान भरता था जो
आज बरस कर गिरा है, जहाँ पानी से बुल्बुले भी नही बनते

चल पड़े थे साहिल पर अपने निशान छोड़े
ये इल्म नही था, लहरें वक़्त से आगे निकल जाएँगी

कल रात चाँद आया था, एक नया सवेरा रोशन करने
उन रेत के टीलों पर बनी तस्वीर को चांदनी से भरने
पर कुछ बदलियाँ शरारतीं थीं, कुछ नीन्द मेहरबान थीं
ख्वाबों को कम्बल उढ़ा कर , गर्म साँसे भी सुला दीं

                   -श्वेतिमा

Saturday, August 8, 2015

अगर.…


यूँ ना दुनिया में मतलब के साथी ढूंढ़ते
अगर तुम साथ होते

यूँ ना हर किसी भी शख़्श के नखरे उठाते
अगर तुम साथ होते

दिल में अकेलेपन के यूँ ज़ख्म न होते
अगर तुम साथ होते

यूँ ना अजनबियों में ख़ुशी ढूंढ़कर मुस्कुराते
अगर तुम साथ होते

आईने से यूँ खुद की तारीफ न करते
अगर तुम साथ होते

शौक पूरे करने के लिए यूँ हर एक को न मनाते
अगर तुम साथ होते,
अगर तुम साथ होते…

                                                              -- श्वेतिमा 

Friday, August 7, 2015

कुछ ऐसे ही

वो ज़ालिम मुह फेर लेते हैं 
अनजान बनते हैं ,
चाहते हैं वो भी बहुत 
पर आँखें बंद कर लेते हैं 

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तुम्हारी ये नज़ाकत 
दिल बहार कर जाती है
साँसे तुम्हारी जब छुटती हैं तो साज़ बन जाती हैं, 
मोतियों सी चमकती तुम्हारी ये ऑंखें 
झुकें तो हया और उठे तो जहान बन जाती हैं 

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इस नज़ाकत से भरी सरगोशियों की अदा क्या खूब है 
तेरी नज़रों की हया में छुपी ताज़गी की फ़िज़ा क्या खूब है

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एक मुस्कराहट ऐसी है 
जो हलका करदे सारी ज़मीन 
जो दीदार हो जाये थकी आँखों से,
तो बन जाए ज़िन्दगी वहीँ 

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अब जो बिछड़े थे 
सोचा ना था वो लौटकर नही आएंगे 
हम तो आज भी ऑंखें बिछाये बैठे हैं राहों पर 
जानते हैं, मंज़िलों पर हम उन्हे न पाएंगे 

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                                                                                         -- श्वेतिमा 


दोस्ती


दोस्ती वो अलफ़ाज़ है जिसका मायना बयां नही होता 
दिल से जुड़े इन रिश्तों का , 
कभी दौर पुराना नही होता …
                               
                                                       --श्वेतिमा  

Thursday, August 6, 2015

शिकायतें


हम उनका साथ देते गए , धक्का करते गए 
उन्होंने पलटकर कभी हमारी पीठ भी नही थपथपाई 

हम राहों से उनकी, काटें चुनते गए 
उन्होंने ज़रा थमकर हमारी पलकें भी नही सहलायीं...

                                                                     -- श्वेतिमा 

Monday, August 3, 2015

वक़्त..



अक्सर मैंने वक़्त चलते देखा है,
घडी की सुईयों को ख्वाब बुनते देखा है,
मन्ज़िल बदलती है हर पल उसकी,
अपनी हर मन्ज़िल से आगे बढ़ते देखा है। 

जीवन का फलसफा भी अजीब है,
ख़ुशी मिले तो वक़्त थामने की बात करते हैं,
इस मतलबी दुनिया में अक्सर मैंने,
ग़म को हरपल हमपे हसते देखा है। 


                  -गुन्जन 



Saturday, August 1, 2015

दर्द


ज़माना अकसर ये पूछता है हम से 
क्यों ताल्लुक है तुम्हारा इसतरह दर्द से 
इसकदर मदहोशी क्यों छाई है 
क्यों धुंदली सी चादर आँखों में समाई है 

उन्हें जवाब नही दे पाते , बस कह देते हैं 
जो बेइन्तेहाई का सैलाब दिलभरकर रखा है 
उसके ही कुछ छींटे हैं 
जो अक्सर रूह को भिगो जाते हैं 

                                                   -- श्वेतिमा 

चलो चलें आज

चलो चलें आज 
डालकर झूलें उन ठंडी छाँव में
जहाँ कोयल गाती है मीठा सा 
रस घोलकर आमों के बागों में


चलो चलें आज 
 उन पतली सुखी पगडंडियों पर 
जहाँ बिछी है ज़मीन पर पीली चादर 
और मोर नाचे खलिहानों में थिरक कर 

चलो चलें आज 
उन दोपहर की गरम हवाओँ में 
जहाँ कूदते उछलते पहुंच चले 
गाँव के उन शांत गलियारों में 

चलो चलें आज 
काली गहरी रात की आखिरी लकीर पर 
जहाँ सुबह की अँखियों से 
देखें लाल सूरज उन ओस की बूंदों पर  

चलो चलें आज, चलो चलें आज...

                                                     -- श्वेतिमा