Wednesday, August 12, 2015

धूल

आज भी जब उन गलियों से गुज़रते हैं
वक़्त की किताब से पुराने पन्ने पलटते हैं
जहाँ कभी रोशन चांदनी थी
सपनों की रवानी थी
लम्हों में जवानी थी
और जैसे काबू जिंदगानी थी

उन हरे पत्तों से टपकती बूदों के हीरे
और मिट्टी की खुशबू में महकती तस्वीरें
जब झाड़ी वो चादर
बिखर कर गिर गए वो हज़ार तारे
जिन्हें पलकों से तोड़ा था
रखकर सर तुम्हारे कांधे के सहारे

बदल गए है लोग, बदला सा कुछ वक़्त भी है
पर जाकर जब छुए तुम्हारे क़दमों के निशान,
ये लम्हा वहीँ ठहर सा गया है

भूले गर होते तो अजनबी होते इस शहर में
पर खिली हैं कुछ बंद कलियाँ
कुछ रात की रेत धुली सी है
अहसास कुछ घुला सा है हवाओं में
और सुकून समाया है शामों सेहर में

                                           - श्वेतिमा

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