Tuesday, August 11, 2015

वो जज़्बात

वो नदी जो बहती थी, किनारे कुछ टूटे से हैं अब उसके
ठंडी हवा जो चलती थी वहां, अब कुछ उमस सी रहती है

कुछ तो सूख गया है, या कुछ रूठ गया है
जो बच्चा था हँसता खिलखिलाता सा, वो सपने बुनना भूल गया है

सुनहरे पंख लिए, बादलों से उपर उड़ान भरता था जो
आज बरस कर गिरा है, जहाँ पानी से बुल्बुले भी नही बनते

चल पड़े थे साहिल पर अपने निशान छोड़े
ये इल्म नही था, लहरें वक़्त से आगे निकल जाएँगी

कल रात चाँद आया था, एक नया सवेरा रोशन करने
उन रेत के टीलों पर बनी तस्वीर को चांदनी से भरने
पर कुछ बदलियाँ शरारतीं थीं, कुछ नीन्द मेहरबान थीं
ख्वाबों को कम्बल उढ़ा कर , गर्म साँसे भी सुला दीं

                   -श्वेतिमा

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