Saturday, August 1, 2015

चलो चलें आज

चलो चलें आज 
डालकर झूलें उन ठंडी छाँव में
जहाँ कोयल गाती है मीठा सा 
रस घोलकर आमों के बागों में


चलो चलें आज 
 उन पतली सुखी पगडंडियों पर 
जहाँ बिछी है ज़मीन पर पीली चादर 
और मोर नाचे खलिहानों में थिरक कर 

चलो चलें आज 
उन दोपहर की गरम हवाओँ में 
जहाँ कूदते उछलते पहुंच चले 
गाँव के उन शांत गलियारों में 

चलो चलें आज 
काली गहरी रात की आखिरी लकीर पर 
जहाँ सुबह की अँखियों से 
देखें लाल सूरज उन ओस की बूंदों पर  

चलो चलें आज, चलो चलें आज...

                                                     -- श्वेतिमा 


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