Thursday, July 23, 2015

पानी के बुलबुले..



खुशमिजाज़ रहते हैं,
ये पानी के बुलबुले,
ज़रा से स्पर्श से ही,
खिलखिला उठते हैं,
प्यार की थपकी दो तो,
जैसे नाच ही उठते हैं,
मालिक अपनी ज़िन्दगी के,
ये खुद ही होते हैं,
मन चाही उड़ान,
ये गगन में भरते हैं,
पकड़म पकड़ाई हमसे,
ये खेला करते हैं,
हाथ में हमारे,
ना ये आया करते हैं,
रंगो में कुछ लिपटकर,
करवट लिया करते हैं,
हलकी सी फूक से ही,
दूर उड़ान भरते हैं!!

काश ये ज़िन्दगी होती,
पानी के बुलबुलों जैसी,
जो ग़म की बरसात भी होती,
तो आँसुओं को धो देती,
मेरी हर ख्वाहिश को,
एक रास्ता मुकर देती!!

             - गुन्जन 


बे-मकसद ये ज़िन्दगी..



दिल चाहता है कभी कि नापने निकल पडूँ ज़मीन यूँ ही,
ना देखूँ दिन ना देखूँ रात बस चलता रहूँ यूँ ही,
इस बे-मकसदि से चलने में ही शायद पा लूँ खुद को,
बे-फ़िक्री भरे इस सफर में बस यूँ ही चलता रहूँ,
कुछ अनजान चेहरे दिखें, जिनको जानता-पहचानता मैं हूँ नहीं,
लेकिन वो भी हैं ज़िन्दगी के सफर के मुसाफिर मुझ जैसे ही,
हर रोज़ की ज़ेहनी मुशक्कत से दूर, 
पा लूँ कुछ ज़ेहनी सुकून,
कुछ रास्ते बे-मकसद अक्सर मकसद दे जाते हैं ज़िन्दगी को!!

                -ज्योत्सना 


ज़िन्दगी फिर यूँ ही..


ज़िन्दगी फिर यूँ ही छलती चली गई,
हमको बस अपने बस में करती चली गई,
समझ आने लगा कुछ यूँ कि दोस्ती करलें इससे,
रिश्ता अगर ये बना ले तो शायद ये साथ दे,
बस जो ही रिश्ता बना दोस्ती का इससे,
ये नए रंग मुझमे भरती चली गई,
ज़िन्दगी के मायने समझने में ज़िन्दगी गुज़रती चली गई,
हर शख़्स का फलसफा है मुख़्तलिफ़ ज़िन्दगी का फिर भी सही फलसफा है,
अगर मान लो तो हर लम्हा ज़िन्दगी का है ज़िन्दगी से भरा,
और ना मानो तो हर लम्हा है खालीपन से भरा!!

                - ज्योत्सना 


Sunday, July 19, 2015

रास्ते


रोज़ उठकर सुबह यही सोचते हैं 
जो दुरी है घर से , वो आज फिर नापनी है …

वो सारे रास्ते वहीँ रहते हैं
और हम रोज़ उन्ही से गुज़रते हैं
क्या जो चाहिए , वो सही में चाहिए 
ये सवाल रोज़ पूछते हैं
पर जवाब कभी सुनाई नही देता 
फिर मना लेते हैं खुद को 
अब जीने की यही एक मंज़िल जो दिखती है

चारों तरफ अँधेरे से जब गुज़रो 
बहुत मुश्किल है खुद को टूटने से रोकना
अश्क बहाने के लिए जब वो सहारा न मिले 
तो टुकड़े कर देता है उन्हें पलकों में ही समाना  

आवाज़ देते हैं पर उधर पहुंचा नही पाते 
गलती ये करते हैं की पुकार लेते हैं 
दर्द में अल्फ़ाज़ अक्सर बंद आँखों से निकलते हैं 
खुली आँखों से रोज़ कईं हज़ार चहेरे देखते हैं

जाने वाले नही आएंगे कभी लौटकर 
ये कहते हैं रोज़ दिल से 
पर वो तो मासूम है 
वो क्या जाने ये दुनिया की आदतें 
इश्क़ का चिराग रोशन करता है 
और स्याह कर देता है इन आँखों को 

कईं मोड़ मुड़कर भी 
रास्ते वापिस वहीँ से शुरू हो जाते हैं 
फिर भी रोज़ उठकर सुबह यही सोचते हैं 
जो दुरी है घर से, वो आज फिर नापनी है
जो दुरी है घर से, वो आज फिर नापनी है.…
                                      
                                                           -- श्वेतिमा 



हम


बहुत सादादिली है हमारी की
रुख बदलने पर भी फ़िज़ाओं का 
हमने दामन बहारों से सजा रखा है...

                                                -- श्वेतिमा 

Wednesday, July 15, 2015

उम्मीद..



कुछ मयार ऐसा था उम्मीदों का हमारी,
कि न-उम्मीदी का दामन तो थामना ही था,
काँटों के राहे गुज़र पे लेकिन खुद को सम्भालना ही था,
ज़ख़्मी पैर नहीं रूह हुई थी, फिर भी उस रूह को संवारना ही था,
किसने कहा के बदलते नहीं हैं वो मुश्किलात के लम्हे,
इस फलसफे को हमे सुधारना ही था!!

                           
                                 - ज्योत्सना 


फ़िज़ा ..



फ़िज़ा ने कहा मैं साथ ले आई हुँ 
कुछ खुशबुएँ कुछ रंग-इ-ख्वाहिशें,

फ़ितरत नहीं मेरी रुकने की 
रुक ना सकूँगी इसलिए!

मुझसे ना कहना कि फितरत बदल दूँ मैं,
ना ठहरना ही तो आदत है मेरी!

कुछ रेत के कतरे भी साथ उड़ा लाई हुँ,
उनकी हमसफ़र बनके यहाँ तक आई हुँ!

कभी ख़ामोश हुँ मैं, कभी थोड़ी सी हुँ आवाज़,
खुशनुमा हुँ कभी, और हुँ कभी तूफ़ान का आग़ाज़!

कभी बेघर हुँ ऐसा है मुझे एहसास,
और कभी लगता है आशियाना ये पूरा जहान!


                 -ज्योत्सना 


दर्द



इतना दर्द है निकलता तुम्हारी कलम से,
कि पूछुँ तुमसे -  तुम खैरियत से हो न?

रूह में इस क़दर मिल जाते हैं अलफ़ाज़ तुम्हारे,
कि कहुँ तुमसे - खयालों से मुलाकात ज़ारी रखना!

तेरी एक हसी के क़ायल तो हम हैं ही,
कि समझाऊँ तुम्हे- तुम उदास कभी मत होना!

एक और वक़्त है जहाँ तुम आज़ाद परिन्दे सी हो,
कि बताऊँ तुम्हें- वो वक़्त सिर्फ आँखों में ही है मेरी बसा!

इरादा तो तुमसे बस गुफ़्तगू का ही है,
कि एहसास कराऊँ तुम्हें- दिल में तेरे बस मैं हूँ बसता!


                   -गुन्जन


Saturday, July 11, 2015

तब्दीली



रोज़ बदलती ज़िन्दगी में हम कुछ यूँ उलझ गए 
की आज का खुशनुमा समां हम महसूस भी न कर सके… 

जिस के सहारे हम रोशन किया करते थे अपनी भुझ्ती रातें,
आज उन्ही को पलकों से ओझल किये हम आगे बढ़ चले… 

                                                                                  --- श्वेतिमा 

जो खो गया



आजकल बहुत बदला है कुछ 
पहले जो आदत थी खूब बांटने की …
नहीं रहती पास अब मेरे
क्या बांटने से खत्म हो गयी,
या कहीं खो गयी मुझसे ,
बहुत की कोशिश पर मिली नही वहां ,
जहाँ आखिरी बार मिले थे उससे… 

कुछ पुरानी तसवीरें याद दिलातीं हैं सबूत
कहीं छोड़ तो नही आये उस पुराने रास्ते क दरख़्त पर 
सबसे मिलते थे पहन कर जिसे,
क्यों अब सिल नहीं पाते दुबारा वो किस्से … 

किसी ने टोका नही अभी तक ,
शायद अब दोस्त भी बदल लिए
पुरानी हवेली जाएंगे तो सब शोर मचाएंगे ,
कहाँ लूटा आये हो ये दौलत 
बता देंगे उन्हें अपनी ये उलझन, वो तो जिगर हैं हमारे
जो मुस्कुरा रहें हैं अभी भी, उम्मीद है हंस भी लेंगे कभी …  

                                                                                   -- श्वेतिमा 

Thursday, July 9, 2015

कुछ किस्से..



आ बैठें चल करलें ज़िन्दगी की गुफ़्तगू दो-चार,
वक़्त कहीं ज़ाया ना हो जाए यूँ ही ज़ार-ज़ार,
यूँ तो एक उम्र ही कम है किस्से बयां करने को,
कुछ एक किस्सों से मगर आज आग़ाज़ हो जाए,
ज़िक्र जब हो ही चला है कुछ आम-ख़ास किस्सों का,
चल आज कुछ तेरी-मेरी कैफ़ियत भी आम हो जाए,
हर एक शख्स के तमाम किस्सों में,
ज़िन्दगी के फलसफे बयां हो जाएं.... 

              -ज्योत्सना


Sunday, July 5, 2015

उलझन


ये कैसी उलझन हैं , ये कैसी बातें हैं....

दिल से जो निकलते हैं, वो अलफ़ाज़ अक्सर अनसुने से क्यों हैं 
हम मिलते हैं रोज़ उनसे, जाने उनको ख्वाबों से इतने गिले क्यों हैं.. 

इन हवाओं में गूंजते हैं हमारी मोहब्बत के अफ़साने, 
फिर भी ये फ़िज़ाएं इतनी सूनी क्यों हैँ.. 

ये कैसी उलझन हैं , ये कैसी बातें हैं.… 

                                                                                  -- श्वेतिमा 

दोस्ती


खुशबू जैसे चमन से कभी शफ़ा नही होती 
धड़कने दिल से कभी जुदा नही होतीं 
चकोर की मोहबत चाँद से जैसे कभी खफा नही होती ,
ऐ यार !! दोस्ती वैसे ही रहती है कभी बेवफा नही होती..... 

                                                                         --- श्वेतिमा 

वोह …


छोड़ो!! जो साथ नही उसकी क्या बात करनी
 याद आने पर क्यों नमकीन ये ज़बान करनी …… 
दीदार होता है जिसका रोज़ सुबह इन आँखों में,
उसको सपनों से  बाहर लाने की ख्वाहिश क्यों करनी … 

                                                                       -- श्वेतिमा 

Friday, July 3, 2015

हमसफ़र..



मंज़िल दूर नहीं है,
तेरे आस-पास होने के आसार जो मिल गए हैं!

तू मंज़िल है, सफर पर नज़र है,
साथ मिल जाए तेरा, तो किसकी फिर फ़िक़र है!

ज़माने का डर ना रुसवाई की शिकन है,
तू जैसा है जो भी है, सबसे जिगर है!

हर तरफ ख़ुशी है ना कोई ग़म है,
कि ये बस तुम्हारे साथ का असर है!

मंज़िल की ना रास्तों की फ़िक़र है,
शब-ओ-सहर ना मौसमों की फ़िक़र है,
धूप भी चाँदी, रात भी रोशनी,
क्युंकि! तु हमसफ़र है
क्युंकि! तु हमसफ़र है

हमसफ़र हमराही मिल गया,
कश्ती को किनारा मिल गया,
तू जो सामने दिखा मुझे,
मेरी अधूरी ख़्वाहिशों को सहारा मिल गया!


            - गुन्जन, हुमा, ज्योत्स्ना, श्वेतिमा 


नज़रें करम..



एक नक़्श उभरा था,
आँखों में उतारा था,
कुछ उसको सँवारा था,
फिर काग़ज़ पे उतारा था!

ये ना कभी सोचा था,

युँ नज़रें करम होंगी,
अलफ़ाज़ हमारे भी,
दुनिया की नज़र होगी!


                               -हुमा


इन्तेहाँ हो गई इंतेज़ार की..



कुछ कम कुछ ज़्यादा 
थोड़ा इंतेज़ार 
थोड़ा तुमसे मिलने का इरादा,

कुछ इस क़दर पकड़ लिया है ज़िन्दगी ने,
मेरा वजूद रह गया आधा-आधा!


अब हाल ये है की जी रहे हैं,
तुम्हें सुन रहे हैं और ज़खम सीं रहें हैं,
इंतेज़ार है कि लौट के आएं वापस,
बस गिन-गिन लमहे बेबसी के घूंठ पी रहें हैं!


                  -हुमा 


Thursday, July 2, 2015

कुछ अनकहा



इस खाली पन्ने पर उतारने हैं कईं अलफ़ाज़ 
कुछ पल कम हैं, कुछ पलकें नम हैं.... 

बूंदों से भरा एक नमकीन तालाब है 
अक्स दिखता है पर, परछाई कुछ धूलि सी है 
बादलों की चादर आज भी है हमारे आसमान में 
ख्यालों की नक्काशी पर कुछ घुली सी है.... 

एक वक़्त था , जब वक़्त को शिकवे थे , वक़्त को खफा करने के लिए
एक वक़्त आज है , जब वक़्त से शिकवे हैं, हमें वक़्त न देने क लिए 

कितना अजीब होता है वो समां , जब अपने पराये हो जाते हैं 
दिल में बसाते हैं जिन्हे , वो रास्ते के मुसाफिर बन जाते हैं 
आज लिखने चले जब हम अपने कारवां का किस्सा ,
जाने क्यों, अलफ़ाज़ कुछ कम से पड़ जाते हैं.…

 बदले हम नही, बदला ये मंज़र कुछ यूँ है 
ख़ुशी फैली है चारों तरफ, पर सीने में ग़म हैं …… 
इस खाली पन्ने पर उतारने हैं कईं अलफ़ाज़ 
कुछ पल कम हैं, कुछ पलकें नम हैं.... 


                                                                                              -- श्वेतिमा 

Wednesday, July 1, 2015

Busy Busy ..



आलम है थोड़ी मशरूफ़ियत थोड़ा फ़िक्र का,
थोड़ी तेज़ रफ़्तार है ज़िन्दगी, वक़्त है थोड़ा ज़िक्र का,
ख़ौफ़ज़दा ना हो तुम.. हम हैं यहाँ मौज़ूद,
मिलते ही फुरसत आना है लौट के ज़रूर!!

                             - हुमा