कुछ मयार ऐसा था उम्मीदों का हमारी,
कि न-उम्मीदी का दामन तो थामना ही था,
काँटों के राहे गुज़र पे लेकिन खुद को सम्भालना ही था,
ज़ख़्मी पैर नहीं रूह हुई थी, फिर भी उस रूह को संवारना ही था,
किसने कहा के बदलते नहीं हैं वो मुश्किलात के लम्हे,
इस फलसफे को हमे सुधारना ही था!!
- ज्योत्सना
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