Sunday, July 19, 2015

रास्ते


रोज़ उठकर सुबह यही सोचते हैं 
जो दुरी है घर से , वो आज फिर नापनी है …

वो सारे रास्ते वहीँ रहते हैं
और हम रोज़ उन्ही से गुज़रते हैं
क्या जो चाहिए , वो सही में चाहिए 
ये सवाल रोज़ पूछते हैं
पर जवाब कभी सुनाई नही देता 
फिर मना लेते हैं खुद को 
अब जीने की यही एक मंज़िल जो दिखती है

चारों तरफ अँधेरे से जब गुज़रो 
बहुत मुश्किल है खुद को टूटने से रोकना
अश्क बहाने के लिए जब वो सहारा न मिले 
तो टुकड़े कर देता है उन्हें पलकों में ही समाना  

आवाज़ देते हैं पर उधर पहुंचा नही पाते 
गलती ये करते हैं की पुकार लेते हैं 
दर्द में अल्फ़ाज़ अक्सर बंद आँखों से निकलते हैं 
खुली आँखों से रोज़ कईं हज़ार चहेरे देखते हैं

जाने वाले नही आएंगे कभी लौटकर 
ये कहते हैं रोज़ दिल से 
पर वो तो मासूम है 
वो क्या जाने ये दुनिया की आदतें 
इश्क़ का चिराग रोशन करता है 
और स्याह कर देता है इन आँखों को 

कईं मोड़ मुड़कर भी 
रास्ते वापिस वहीँ से शुरू हो जाते हैं 
फिर भी रोज़ उठकर सुबह यही सोचते हैं 
जो दुरी है घर से, वो आज फिर नापनी है
जो दुरी है घर से, वो आज फिर नापनी है.…
                                      
                                                           -- श्वेतिमा 



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