इतना दर्द है निकलता तुम्हारी कलम से,
कि पूछुँ तुमसे - तुम खैरियत से हो न?
रूह में इस क़दर मिल जाते हैं अलफ़ाज़ तुम्हारे,
कि कहुँ तुमसे - खयालों से मुलाकात ज़ारी रखना!
तेरी एक हसी के क़ायल तो हम हैं ही,
कि समझाऊँ तुम्हे- तुम उदास कभी मत होना!
एक और वक़्त है जहाँ तुम आज़ाद परिन्दे सी हो,
कि बताऊँ तुम्हें- वो वक़्त सिर्फ आँखों में ही है मेरी बसा!
इरादा तो तुमसे बस गुफ़्तगू का ही है,
कि एहसास कराऊँ तुम्हें- दिल में तेरे बस मैं हूँ बसता!
-गुन्जन
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